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1857 की क्रान्ति में रानी लक्ष्मीबाई के योगदान लक्ष्मीबाई की भूमिका ।

1857 की क्रान्ति में रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका महिला सशक्तिकरण के इस दौर में भला युवतियों और महिलाओं के लिए रानी लक्ष्मीबाई से अधिक बड़ा प्रेरणास्त्रोत कौन हो सकता है, जिन्होंने पुरुषों के वर्चस्व वाले काल में महज 23 साल की आयु में ही अपने राज्य की कमान संभालते हुए अंग्रजों के दांत खट्टे कर दिए थे। रानी लक्ष्मीबाई ने अपने जीते जी अंग्रेजों को झांसी पर कब्जा नहीं करने दिया।

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1835 को काशी के अस्सीघाट, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम 'भागीरथी बाई' था। इनका बचपन का नाम 'मणिकर्णिका' रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' पुकारा जाता था। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे। माता भागीरथी बाई सुशील, चतुर और रूपवती महिला थीं।मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से 'छबीली' बुलाते थे। मनु का विवाह सन् 1842 में झाँसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ बड़े ही धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। राजा की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने रानी के दत्तक पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और रानी को पत्र लिख भेजा कि चूँकि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसीलिए झाँसी पर अब अंग्रेजों का अधिकार होगा। रानी यह सुनकर क्रोध से भर उठीं एवं घोषणा की कि मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी। अंग्रेज तिलमिला उठे। परिणामस्वरूप अंग्रजों ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने भी युद्ध की पूरी तैयारी की। किले की प्राचीर पर तोपें रखवायीं। रानी ने अपने महल के सोने एवं चाँदी के सामान तोप के गोले बनाने के लिए दे दिए।रानी के किले की प्राचीर पर जो तोपें थीं उनमें कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं नालदार तोपें प्रमुख थीं। रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे गौस खाँ तथा खुदा बक्श। 14 मार्च, 1858 से आठ दिन तक तोपें किले से आग उगलती रहीं। रानी ने किले की मज़बूत किलाबन्दी की। रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज़ सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया। अंग्रेजों ने किले को घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया। related topics

रानी ने तोपों से युद्ध करने की रणनीति बनाते हुए कड़क बिजली, घनगर्जन, भवानीशंकर आदि तोपों को किले पर अपने विश्वासपात्र तोपसी के नेतृत्व में लगा दिया। रानी रणचंडी का साक्षात् रूप रखे पीठ पर दत्तक पुत्र दामोदर राव को बांधे भयंकर युद्ध करती रहीं। अंग्रेज आठ दिनों तक किले पर गोले बरसाते रहे परन्तु किला न जीत सके। रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अन्तिम सांस तक किले की रक्षा करेंगे। अंग्रेज़ों ने झाँसी के ही एक विश्वासघावी सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया और 23 मार्च 1858 को जिसने किले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना किले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया। घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रूप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं। झाँसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े। जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूंज उठी। किन्तु झाँसी की सेना अंग्रेज़ों की तुलना में छोटी थी। रानी अंग्रेज़ों से घिर गयीं। कुछ विश्वासपात्रों की सलाह पर रानी कालपी की ओर बढ़ चलीं। लक्ष्मीबाई किला छोड़कर कालपी चली गईं और वहाँ से युद्ध जारी रखा। 1857 में मेरठ से गदर का आगाज़ हो चुका था। झांसी विद्रोह का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती भी की गयी और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया। साधारण जनता ने भी इस विद्रोह में सहयोग दिया। रानी लक्ष्मीबाई ने तात्या टोपे के सहयोग से शिन्दे की राजधानी ग्वालियर पर हमला बोला, जो अपनी फौज के साथ कम्पनी का वफादार बना हुआ था। लक्ष्मीबाई के हमला करने पर अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए आगरा भागा और वहाँ अग्रेजों की शरण ली। लक्ष्मीबाई की वीरता देखकर शिन्दे की फौज विद्रोहियों से मिल गई। रानी लक्ष्मीबाई तथा उसके सहयोगियों ने नाना साहब को पेशवा घोषित कर दिया और महाराष्ट्र की ओर धावा बोलने का मनसूबा बांधा, ताकि मराठों में भी विद्रोहाग्नि फैल जाए। 22 मई, 1858 को क्रांतिकारियों को कालपी छोड़कर ग्वालियर जाना पड़ा 17 जून को फिरु बुद्ध हुआ। रानी के भयंकर प्रहारों से अग्रेजों को पीछे हटना पड़ा। महारानी की विजय हुई। रानी ने अपना घोड़ा दौड़ाया पर दुर्भाग्य से मार्ग में एक नाला आ गया। घोड़ा नाला पार न कर सका। तभी अंग्रेज़ घुड़सवार वहाँ आ गए। एक ने पीछे से रानी के सिर पर प्रहार किया उसी समय दूसरे गोरे सैनिक ने संगीन से उनके हृदय पर वार कर दिया। गंभीर रूप से घायल होने पर भी रानी अपनी तलवार चलाती रहीं और उन्होने दोनों आक्रमणकारियों को मार डाला। फिर वे स्वयं भूमि पर गिर पड़ी। रानी झांसी की निर्भीकता और बहादुरी को देखकर ही अंग्रेज अधिकारी जनरल ह्यूरोज ने चार जून, 1858 को कहा था कि 'नो स्टूअर्स इफ वन परसेंट ऑफ इंडियन वुमेन बिकम सो मैड ऐज दिस गर्ल इज, वी विल हैव टू लीव आल दैट वी हैव इन दिस कंट्री (अगर भारत की एक फीसदी महिलाएँ इस लड़की की तरह आजादी की दीवानी हो गईं तो हम सबको यह देश छोड़कर भागना पड़ेगा)।

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