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राष्ट्रीय आंदोलन में सुभाषचंद्र बोस का योगदान स्वतंत्रता संघर्ष में गांधी एवं सुभाष के दृष्टिकोण ।

राष्ट्रीय आंदोलन में सुभाषचंद्र बोस का योगदान सुभाष चंद्र बोस ने राष्ट्रीय आंदोलन में युवाओं को संगठित किया तथा नेहरू के साथ मिलकर 'इंडिपेंडेंस ऑफ इंडिया लीग' का भी गठन किया। उन्होंने समाजवादी विचारों को प्रोत्साहन दिया तथा कॉन्ग्रेस को समाजवाद की दिशा में मोड़ने का प्रयास किया। उन्हीं के अंतर्गत हरिपुरा अधिवेशन में योजना समिति के गठन का प्रस्ताव पारित हुआ था आजाद हिंद फौज का गठन कर राष्ट्र के प्रति अपने समर्पण का उदाहरण प्रस्तुत किया तथा आजाद हिंद फौज के मुद्दे ने भारत में राष्ट्रीय आंदोलन को तीव्र कर दिया। हालाँकि, आजाद हिंद फौज सैनिक मोर्चे पर अधिक सफल नहीं रही थी, न ही ब्रिटिश साम्राज्य को कोई बड़ी चुनौती दे सकी। परंतु इसने भारतीय सेना के बीच राष्ट्रवाद को फैलाकर ब्रिटिश साम्राज्य के मुख्य स्तंभ को ही क्षतिग्रस्त कर दिया। 

स्वतंत्रता संघर्ष में गांधी एवं सुभाष के दृष्टिकोण में अंतर

• सुभाष के लिये आज़ादी का अर्थ राजनीतिक आजादी और कुछ हद तक आर्थिक आजादी था, परंतु गांधी के लिये आजादी का पहला अर्थ नैतिक स्वतंत्रता, फिर राजनीतिक आज़ादी था।

• सुभाष शीघ्रता से राजनीतिक आज़ादी प्राप्त करना चाहते थे। वे प्रतीक्षा करने के लिये तैयार नहीं थे, परंतु गांधी एक प्रक्रिया के माध्यम से आजादी की ओर बढ़ना चाहते थे और उसे क्रमिक रूप से हासिल करना चाहते थे। 1942 तक ब्रिटिश से निराश होने के बाद ही उन्होंने 'करो या मरो' का नारा दिया था।

• गांधी उचित साधन का प्रयोग कर अपना लक्ष्य प्राप्त करना चाहते थे, अतः वे सत्याग्रह एवं अहिंसा के माध्यम से आजादी की लड़ाई में आगे आए। परंतु, सुभाष के लिये लक्ष्य ज्यादा महत्त्वपूर्ण था और उन्होंने इसे प्राप्त करने के लिये किसी भी साधन को अपनाने की तत्परता दिखाई।

• गांधी राष्ट्रीय शक्ति का उपयोग कर भारत की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना चाहते थे, वहीं सुभाष विदेशी शक्ति का सहयोग लेकर भी अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिये तत्पर थे। फिर भी दोनों का एक-दूसरे के प्रति आदर का भाव था। राजनीतिक विचारों में मतभेद के बावजूद सुभाष ने गांधी को 'राष्ट्रपिता' की संज्ञा दी थी और बदले में गांधी उन्हें 'देशभक्तों का देशभक्त' कहते थे।

उदारवादी विचारधारा और राजनीति मुख्य विशेषताएँ -

• पश्चिमी संवैधानिक सरकार, उदारवाद और प्रतिनिधि संस्थानों की वैचारिक उपलब्धियों की चकाचौंध से उदारवादी नेता उत्साहित थे।

• ब्रिटिश उदारवाद द्वारा उदारवादियों को बहकाया गया था और यह विश्वास दिलाया गया था कि लंबे समय तक भारत पर ब्रिटिश शासन से भारत में भी प्रतिनिधि संस्थाओं का विकास होगा।

• सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे नेताओं ने भारत के भविष्य की रक्षा में ब्रिटिश शासन की वफादारी के महत्त्व को रेखांकित किया था।

• वे केवल भारत में गैर-ब्रिटिश शासन के विरोधी थे। दूसरे शब्दों में कहें, तो उन्होंने एंग्लो-इंडियन नौकरशाही को भारत में गलत प्रशासन के लिये काफी हद तक ज़िम्मेदार ठहराया, अन्यथा वे ब्रिटिश शासन की बहुत प्रशंसा करते थे। उदारवादियों का मानना था कि ब्रिटिश शासन की निरंतरता भारत को सभ्य राष्ट्रों की कतार में खड़ा करेगी।

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• नौरोजी और गोखले जैसे उदारवादियों ने कॉन्ग्रेस को बड़ी राजनीतिक भूमिका देना पसंद किया, लेकिन उन्होंने ब्रिटिश सरकार के साथ किसी भी तरह के संघर्ष से बचने की कोशिश की।

• वे जनता की शक्ति में विश्वास नहीं करते थे, जबकि खुद को वे जनता का वास्तविक नेता मानते थे।

• दादाभाई नौरोजी, आर.सी. दत्त और रानाडे जैसे उदारवादी नेताओं ने धन निष्कासन सिद्धांत के माध्यम से औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की एक व्यवस्थित आलोचना प्रस्तुत की।

इस तथ्य में कोई संदेह नहीं है कि उदारवादी नेताओं ने भारत में कभी भी कोई जन-आंदोलन नहीं चलाया, लेकिन ब्रिटिश शासन की वैचारिक समालोचना करके भारत में ब्रिटिश शासन के आधिपत्य पर सवाल जरूर उठाया। उदारवादी संवैधानिक पद्धति ने भारत की भावी क्रांति का रास्ता तैयार किया।


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