भूगर्भिक संरचना का अभिप्राय (Meaning of Geological Structure)
भूगर्भिक संरचना का अभिप्राय किसी देश या प्रदेश के भूतल के नीचे पाई जाने वाली चट्टानों की संरचना एवं बनावट से होता है। किसी देश के भौगोलिक अध्ययन में वहाँ की भूगर्भिक संरचना का विशेष महत्व होता है क्योंकि इसी के आधार पर ही वहाँ की स्थलाकृति का विकास होता है।
भारत की भूगर्भिक संरचना का इतिहास
भूगर्भिक संरचना का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी पुरानी हमारी पृथ्वी। भारतवर्ष के भूगर्भिक इतिहास का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि यहाँ प्राचीनतम से लेकर आधुनिकतम चट्टानें या शैलें पायी जाती हैं। यहाँ आद्य महाकाव्य (Arachean Era) से लेकर नवीन नव जीवकल्प (Guaternary Era) तक की शैलें पायी जाती हैं। भूगर्भिक संरचना की दृष्टि से भारतवर्ष को निम्नलिखित दो भागों में बाँटा जा सकता है-
1. उत्तरी भारत-उत्तरी भारत के अधिकांश भाग की चट्टानों का निर्माण टरशियरी कल्प तथा क्वार्टनरी कल्प में हुआ है। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि उत्तरी भारत की चट्टानें नवीन उत्पत्ति की हैं।
2. दक्षिणी भारत या प्रायद्वीपीय भारत-दक्षिण भारत के अधिकांश भागों की चट्टानें प्राचीन उत्पत्ति की हैं जिनका निर्माण प्रमुख रूप से आर्कियन कल्प से लेकर टरशियरी कल्प के मध्य हुआ है।
प्रायद्वीपीय भारत की भूगर्भिक संरचना
प्रायद्वीपीय भारत एक प्राचीन पठार है। यह पठार कठोर एवं स्थिर भूखण्ड है, जो प्राचीनतम चट्टानों से लेकर प्राचीन युग की शैलों द्वारा बना हुआ है। इसकी संरचना आज से लगभग 50.60 करोड़ वर्ष पूर्व बतायी जाती है। इस पठारी प्रदेश की चट्टानों पर भूगर्भिक हलचलों का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, परन्तु गोंडवानालैण्ड के विखण्डन के समय इस प्रदेश में कई स्थानों पर दरारें पड़ गयी और बहुत से भाग नीचे दब गये जो कालान्तर में अवसादों से भर गये। इसमें वनस्पतियाँ दब गयीं जो कोयले की परतों में परिवर्तित हो गयीं। इसी समय अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी भी बनी। प्रायद्वीपीय पठारी प्रदेश में पाई जाने वाली चट्टानों को निम्नलिखित चार समूहों तथा आठ क्रमों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
1. वैदिक समूह की चट्टानें (Recks of Vaidik Group)-
(a) आर्कियन क्रम की चट्टानें (Rocks of Archean System),
(b) धारवाड़ क्रम की चट्टानें (Rocks of Dharwar System),
2 . पुराण समूह की चट्टानें (Rocks of Puran Group),
(a) कुदप्पा क्रम की चट्टानें (Rocks of Cuddapah System),
(b) विंध्यन क्रम की चट्टानें (विंध्यन समूह की चट्टानें),
3. द्राविड़ियन समूह की चट्टानें (Rocks of Dravidian Group),
4. आर्यन समूह की चट्टानें (Rocks of Aryan Group),
(a) गोंडवाना क्रम की चट्टानें (Rocks of Gondwana System),
(b) दकन ट्रेप अथवा लावा प्रदेश (Deccan Traps),
(c) टरशियरी क्रम की चट्टानें (Rocks of Tertiary System),
(d) क्वार्टिनरी की चट्टानें (Rocks of Quartinary System)।
1. वैदिक समूह की चट्टानें- इस समूह की चट्टानें पृथ्वी की प्राचीनतम चट्टाने है। इन चट्टानों का निर्माण सम्भवतः उस समय हुआ होगा जिस समय पृथ्वी सर्वप्रथम ठण्डी हुई होगी। उस समय पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व नहीं रहा होगा। इसीलिए इन चट्टानों में जीवाश्मों का अभाव पाया जाता है। तप्त पृथ्वी के ठण्डे होने के कारण उसकी ऊपरी पपड़ी के सिकुड़ने के फलस्वरूप चट्टानों में वलन (Folding) तथा प्रशन (Faulting) की व्यापक घटनाओं के घटित होने से पर्वतों का निर्माण हुआ। इसी समय नीस (Gniess), शिष्ट (Schist) व ग्रेनाइट (Granite) आदि आग्नेय चट्टानों की उत्पत्ति हुई। प्रायद्वीपीय मारत में इस समूह की चट्टानें दो क्रमों के अन्तर्गत पाई जाती हैं-
(a) आर्कियन क्रम की चट्टानें- इस क्रम की चट्टानें लगभग 2 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में फैली हुई हैं। ये चट्टानें असम, उड़ीसा, मध्य प्रदेश तथा बिहार के छोटा नागपुर पठार में पाई जाती हैं। इस क्रम की चट्टानों में रवेदार तथा रूपान्तरित नौस की बाहुल्यता पाई जाती हैं। इस क्रम की चट्टानों को निम्न तीन वर्गों में रखा जा सकता है- (अ) बंगाल नीस-इसका विस्तार बंगाल, बिहार, उड़ीसा, तमिलनाडु तथा कर्नाटक में पाया जाता है।
(ब) बुन्देलखण्ड नीस-यह मुख्यतः बुन्देलखण्ड (मध्य प्रदेश) में लाल पत्थर के रूप में पाई जाती है।
(स) नीलगिरि नीस-इसे चारकोनाइट समुदाय के नाम से भी जाना जाता है। यह तमिलनाडु में नीलगिरि, पलनी तथा शिवराय की पहाड़ियों में मिलती हैं।
आर्थिक महत्व-ये चट्टानें आर्थिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इनमें अभ्रक, होर्नब्लेण्ड, क्लोराइड तथा ग्रेफाइट आदि खनिज पाये जाते हैं।
(b) धारवाड़ क्रम की चट्टानें-आद्य क्रम की चट्टानों के अपरदन से प्राप्त अवसादों के निक्षेपण से बनी अवसादी चट्टानों को ही धारवाड़ के नाम से जाना जाता है। इस क्रम की चट्टानों में अत्यधिक कायान्तरण हुआ है जिसके कारण इसमें अनेक खनिज पाये जाते हैं। इन चट्टानों का विस्तार निम्नलिखित क्षेत्रों में पाया जाता है-
(अ) कर्नाटक प्रदेश में धारवाड़ बिल्लारी क्षेत्र,
(ब) मध्य प्रदेश एवं बिहार में छोटा नागपुर का पठारी क्षेत्र,
(स) महाराष्ट्र में नागपुर के निकट,
(द) मध्य अरावली क्षेत्र में जयपुर के निकट ।
आर्थिक महत्व-इन चट्टानों में लोहा, सोना, मैंगनीज, ताँबा, जस्ता, अभ्रक, टंगस्टन, क्रोमियम आदि खनिजों के भण्डार पाये जाते हैं। अतः आर्थिक दृष्टि से इस क्रम की चट्टानों वाले प्रदेश विशेष महत्व रखते हैं।
2. पुराण समूह की चट्टानें- इस समूह की चट्टानों का निर्माण धारवाड़ क्रम की चट्टानों के निर्माण के पर्याप्त समय बाद हुआ। इस अवधि में धारवाड़ चट्टानों के अनेक क्षेत्रों में भूगर्भिक हलचलों के घटित होने से यत्र-तत्र पर्वत तथा खड्डों का आविर्भाव हुआ। बाद में इन्हीं खड्डों (Geo-syncline) में अवसादों के निक्षेपण से पर्तदार चट्टानों का निर्माण हुआ। इसी कारण से पुराण समूह की चट्टानों के नीचे प्रायः धारवाड़ तथा आद्य क्रम की चट्टानों का विस्तार मिलता है। प्रायद्वीपीय भारत में पुराण समूह की चट्टानें निम्नलिखित दो क्रमों के अन्तर्गत पायी जाती है-
(a) कुदप्पा क्रम की चट्टानें- इस समूह की चट्टानों का निर्माण धारवाड़ क्रम की चट्टानों के काफी बाद हुआ है। ये चट्टानें लगभग 22 हजार वर्ग किमी. क्षेत्र में फैली हुई हैं। आन्ध्र प्रदेश में कुदप्पा जिले में इन चट्टानों का सर्वाधिक विस्तार पाया जाता है और इसीलिए इस क्रम की चट्टानों को कुदप्पा के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इनमें शैल, स्लेट, क्वार्टजाइट तथा चूने के पत्थर की प्रमुखता पाई जाती है। इस क्रम की चट्टानों का विस्तार प्रमुख रूप से निम्नलिखित क्षेत्रों में पाया जाता है-
(अ) आन्ध्र प्रदेश का कुदप्पा जिला ।
(ब) मध्य प्रदेश का छत्तीसगढ़ क्षेत्र।
(स) राजस्थान में अरावली पहाड़ी क्षेत्र ।
(द) उड़ीसा में क्योंझर तथा कालाहाण्डी जिले।
आर्थिक महत्व-आर्थिक दृष्टि से ये चट्टानें धारवाड़ क्रम की चट्टानों की तुलना में कम महत्वपूर्ण हैं। वैसे इनमें मैंगनीज, लोहा, ताँबा, निकिल, काबाल्ट, चूना पत्थर आदि • खनिज पाये जाते हैं।
(b) विंध्यन क्रम की चट्टानें-इन चट्टानों का निर्माण कुदप्पा चट्टानों के बाद हुआ है। इन चट्टानों का विस्तार प्रमुख रूप से विंध्यन पर्वतों के सहारे-सहारे पश्चिम में राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले से लेकर पूर्व में बिहार के सासाराम तक पाया जाता है। इसीलिए इस क्रम की चट्टानों को विध्याचल के नाम से पुकारा गया है। कुल मिलाकर ये चट्टानें लगभग 1 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में विस्तृत हैं। इनके प्रमुख क्षेत्र निम्नलिखित हैं-
(अ) सोन तथा चम्बल नदी घाटी क्षेत्र,
(ब) आन्ध्र प्रदेश में करनूल श्रेणी के रूप में,
(स) मालवा व बुन्देलखण्ड प्रदेश में,
(द) राजस्थान में पलनी श्रेणी के रूप में।
आर्थिक महत्व-इन चट्टानों में चूने का पत्थर, लाल बालू पत्थर, चीनी मिट्टी के अतिरिक्त, पन्ना तथा गोलकुण्डा में हीरे पाये जाते हैं।
3. द्राविड़ियन समूह की चट्टानें- इस समूह के अन्तर्गत केम्ब्रियम से लेकर मध्य कार्बोनीफेरस युग की चट्टानें सम्मिलित हैं। इन चट्टानों में जीवाश्म पाये जाते हैं। ये चट्टानें प्रमुख रूप से प्रायद्वीप से बाहर पाई जाती हैं। इन चट्टानों में गोंडवाना क्रम की चट्टानों की प्रधानता मिलती है, जिनका विवरण आर्यन समूह की चट्टानों के अन्तर्गत दिया गया है।
4. आर्यन समूह की चट्टानें- मैसोजोइक कल्प से लेकर अधिनूतन युग तक की चट्टानें आर्यन ह के अन्तर्गत आती है। समूह । इस लम्बी अवधि के दौरान हिमालय पर्वत व उत्तर के मैदानी भाग का जन्म हुआ। इस समूह की चट्टानों को निम्न वर्णित तीन क्रमों में रखा गया है-
(a) गोंडवाना क्रम की चट्टानें- इस क्रम की चट्टानों का जन्म कार्बोनीफेरस से जुरेसिक युग के मध्य हुआ। भूगर्भशास्त्रियों के मतानुसार कार्बोनीफेरस युग में घटित हरसीनियत हलचलों के कारण पृथ्वी पर महाद्वीप तथा महासागरों के विवरण में काफी परिवर्तन हुए तथा जगह-जगह मोड़दार पर्वत मालाओं का आविर्भाव हुआ। लगभग इसी अवधि में हिमयुग का आगमन हुआ, जिसके फलस्वरूप हिमनदियों द्वारा पर्वतों का अपरदन होने लगा तथा अपरदित पदार्थ नदी घाटियों में ऐसे निम्न प्रदेशों में जमा होने लगे जहाँ पेड़-पौधे तथा वनस्पतियाँ थीं। चट्टानों की तहों में निक्षेपित यही वनस्पति कोयले के रूप में परिवर्तित हो गई। इस क्रम की चट्टानों में शैल बलुआ पत्थर तथा चूना के पत्थर की प्रचुरता पाई जाती है।
प्रायद्वीपीय भारत में इन चट्टानों के प्रमुख क्षेत्र निम्नलिखित हैं-
(अ) पेनगंगा तथा गोदावरी के निचले भाग में।
(ब) महानदी घाटी में महानदी श्रेणी के रूप में।
(स) दामोदर नदी की घाटी में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
(द) कच्छ,काठियावाड़, कटक, राजमहेन्द्री तथा मद्रास अन्य क्षेत्र हैं।
आर्थिक महत्व - भारतवर्ष का 90% से भी अधिक कोयला इसी क्रम की चट्टानों में पाया जाता है। इसके अतिरिक्त इन चट्टानों में बलुआ पत्थर व चीका मिट्टी भी पाई जाती है अतः आर्थिक दृष्टि से इन चट्टानों का विशेष महत्व है।
(b) दकन ट्रेप-प्रायद्वीपीय भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग में लगभग 5 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र पर विस्तृत लावा के निक्षेपों को दकन ट्रेप के नाम से जाना जाता है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि क्रिटेशियस युग में घटित हुए ज्वालामुखी विस्फोट से निस्स्रत लावा की अनुप्रस्थ पर्तों के जमाव से इस प्रदेश का आविर्भाव हुआ। इसका विस्तार कच्छ, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, मालवा पठार, उत्तरी कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेश के उत्तर-पश्चिमी भागों पर पाया जाता है। लावा के निक्षेपों की मोटाई पूर्वी तथा दक्षिण-पूर्वी भागों में कुछ मीटर से लेकर पश्चिमोत्तर भाग में 2,500 मीटर या इससे भी अधिक पाई जाती है।
आर्थिक महत्व-यह प्रदेश वेसाल्ट चट्टानों की प्राप्ति का प्रमुख क्षेत्र है। वेसाल्ट चट्टानें सड़क व भवन निर्माण हेतु काम में लाई जाती हैं। लावा का विखण्डन होने से काली मिट्टी का जन्म हुआ है, जो कपास व मूँगफली की पैदावार के लिये सर्वोत्तम मिट्टी है।
(c) टरशियरी क्रम की चट्टानें- इस क्रम की चट्टानें अवसादी चट्टानें हैं, जिनका जन्म समुद्री भागों तथा नदी घाटी क्षेत्रों में अवसादों के निक्षेपण से हुआ है। ये चट्टानें प्रमुख रूप से बाह्य प्रायद्वीपीय भागों में पाई जाती हैं। हिमालय पर्वतों का निर्माण भी इसी क्रम की चट्टानों से हुआ है। प्रायद्वीपीय भारत के समुद्र तटीय भागों में तथा नदियों के डेल्टाई प्रदेशों में इसी क्रम की चट्टानें मिलती हैं। इन चट्टानों में कोयला व पेट्रोलियम के भण्डार पाये जाते हैं अतः इन चट्टानों वाले प्रदेश आर्थिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण हैं।
(d) क्वार्टिनरी क्रम की चट्टानें- इस क्रम की चट्टानें नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, पेरियार आदि नदियों की घाटियों तथा डेल्टाई प्रदेशों में पाई जाती हैं। ये चट्टानें भी अवसादी चट्टानों के अन्तर्गत आती हैं।
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