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असहयोग आंदोलन (1920 ई.)भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने जन आंदोलन के दौर में प्रवेश / खिलाफत ज्यादती तथा स्वराज के मुद्दे

 असहयोग आंदोलन (1920 ई.)


1920-21 ई. में असहयोग आंदोलन के साथ ही भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने जन आंदोलन के दौर में प्रवेश किया। असहयोग आंदोलन, जो आवश्यक रूप से खिलाफत मुद्दे के साथ संबद्ध था, में उस अहिंसात्मक संघर्ष की तकनीकी को पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर अपनाया गया जिसे आगे कॉन्ग्रेस द्वारा विभिन्न आंदोलनों के प्रमुख अस्त्र के रूप में उपयोग किया जाना था। राष्ट्रीय आंदोलन में पहली बार कॉन्ग्रेस एक ऐसे आंदोलन के समर्थन में खड़ी थी जिसका स्पष्ट उद्देश्य ब्रिटिश सरकार के किसी भी दमनात्मक कार्य में असहयोग करना था।

मुस्लिम लीग के इलाहाबाद अधिवेशन, 1920 में, जिसमें कई राष्ट्रवादी हिंदुओं ने भी भाग लिया था, असहयोग कार्यक्रम अपनाने के बाद से ही गांधीजी कॉन्ग्रेस पर पंजाब ज्यादती, खिलाफत ज्यादती तथा स्वराज के मुद्दे पर एक अखिल भारतीय आंदोलन शुरू करने के लिये दबाव बना रहे थे। इसी बीच कॉन्ग्रेस के उदारवादी नेताओं को भी संवैधानिक तौर-तरीकों से कुछ भी विशेष हासिल न होने का आभास होने लगा था। फिर जलियाँवाला बाग हत्याकांड पर सरकार की हंटर रिपोर्ट ने भी कॉन्ग्रेसियों में गहरा असंतोष भर दिया, क्योंकि इसमें जलियाँवाला बाग हत्याकांड जैसे बर्बरतापूर्ण कार्य को सही ठहराया गया था तथा जनरल डायर को अपराधमुक्त कर दिया गया था।

अतः इन परिस्थितियों में आंदोलन प्रारंभ करने से पूर्व गांधीजी ने

22 जून को वायसराय को एक पत्र लिखा, जिसमें सरकार को पंजाब की ज्यादतियों तथा तुर्की के खलीफा के साथ हुए व्यवहारों के लिये खेद प्रकट करने के लिये कहा तथा भारतीयों के परामर्श से ऐसी मांगों को चुनने का अनुरोध किया जिनसे जन असंतोष दूर हो सके। अपने पत्र का कोई जवाब नहीं मिलने पर उन्होंने 1 अगस्त, 1920 को आधिकारिक तौर पर असहयोग आंदोलन प्रारंभ करने की घोषणा की।

1 अगस्त, 1920 को तिलक को शोक संवेदनाएँ देने के बाद आंदोलन की शुरुआत हो गई। इस दिन पूरे देश में हड़ताल आयोजित की गई, प्रदर्शन हुए तथा कुछ लोगों ने उपवास भी रखा। इस आंदोलन के लिये दो प्रकार के कार्यक्रम रखे गए- ध्वंसात्मक तथा रचनात्मक। ध्वंसात्मक कार्यक्रमों में निम्नांकित की गणना की जा सकती है-

• उपाधियों एवं राजकीय सम्मानों का त्याग।

• सरकार से संबद्ध विद्यालयों एवं महाविद्यालयों तथा न्यायालयों का बहिष्कार।

• विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार।

• सरकारी सेवा तथा स्थानीय निकायों के नामांकित पदों से त्यागपत्र।

• कर नाअदायगी से सिविल नाफरमानी आंदोलन तक।

दूसरी तरफ कुछ रचनात्मक कार्यक्रमों को भी अपनाया गया. यथा राष्ट्रीय शिक्षण संस्थानों की स्थापना, ग्राम पंचायतों की स्थापना, कताई-बुनाई को प्रोत्साहन, हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर, छुआछूत का अंत तथा अहिंसा पर बल, चरखा और खादी पर बल, स्वदेशी पर बल देना। इस अवसर पर गांधीजी ने जनता को आश्वासन दिया कि अगर उपरोक्त कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक संपादित किया गया तो एक वर्ष में स्वराज की प्राप्ति हो जाएगी। ध्यातव्य है कि गांधीजी ने यह आश्वासन सर्वप्रथम 'यंग इंडिया' में एक लेख के माध्यम से दिया था।


सितंबर 1920 में कलकत्ता के कॉन्ग्रेस के विशेष अधिवेशन, जिसके अध्यक्ष लाला लाजपत राय थे, में असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया। किंतु कुछ कॉन्ग्रेसी नेताओं ने गांधीजी के इस प्रस्ताव का विरोध किया। चितरंजन दास विधानपरिषदों के बहिष्कार के पक्ष में नहीं थे, जबकि मुहम्मद अली जिन्ना 'स्वराज' शब्द का और भी स्पष्टीकरण चाह रहे थे। लाला लाजपत राय शिक्षण संस्थानों के बहिष्कार पर आपत्ति व्यक्त कर रहे थे। उनका मानना था कि बिना वैकल्पिक उपाय किये ऐसा करना छात्रों के भविष्य के प्रति खिलवाड़ होगा।


एनी बेसेंट ने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा कि यह स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ा धक्का है। सरकार के प्रति एक मूर्खतापूर्वक विरोध का प्रयास हैं। तत्पश्चात् सुरेंद्र नाथ बनर्जी मदन मोहन मालवीय, विपिन चंद्र पाल, शंकरन नायर और सर नारायण चंद्रावरकर ने प्रारंभ में इस प्रस्ताव का विरोध किया।


दिसंबर 1920 में कॉन्ग्रेस का वार्षिक अधिवेशन नागपुर में हुआ, जिसमें लाला लाजपत राय एवं सी.आर. दास ने अपना विरोध वापस ले लिया। इसमें सी.आर. दास द्वारा प्रस्तावित असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव को पुनः अनुमोदित कर दिया गया। नागपुर अधिवेशन, 1920 में ही कॉन्ग्रेस का लक्ष्य अब संवैधानिक और वैधानिक तरीके से स्वशासन की प्राप्ति के स्थान पर अहिंसक और उचित तरीकों से स्वराज की प्राप्ति हो गया, वहीं कॉन्ग्रेस में कुछ संगठनात्मक परिवर्तन भी किये गए।

- प्रवृत्ति के आधार पर असहयोग आंदोलन के विभिन्न चरण-

- प्रथम चरण (जनवरी 1921-मार्च 1921)


आंदोलन के प्रथम चरण में बुद्धिजीवी वर्ग अधिक सक्रिय भूमिका - में था। इस चरण में मुख्य बल वकीलों के द्वारा न्यायालयों के बहिष्कार तथा छात्रों के द्वारा सरकारी नियंत्रण के शैक्षणिक संस्थानों के बहिष्कार - पर रहा। आंदोलन के प्रथम माह में ही हजारों छात्रों द्वारा सरकारी स्कूल - तथा कॉलेजों को छोड़कर राष्ट्रीय संस्थाओं में भर्ती होने को वरीयता देने के कारण राष्ट्रवादियों ने बड़ी संख्या में राष्ट्रीय शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना पर बल दिया। अतः इस चरण में जामिया मिल्लिया इस्लामिया,  काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ तथा गुजरात विद्यापीठ जैसे शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना हुई।

द्वितीय चरण (अप्रैल 1921-जून 1921)


अखिल भारतीय कॉन्ग्रेस के विजयवाड़ा अधिवेशन (मार्च, 1921) के साथ असहयोग आंदोलन का दूसरा चरण प्रारंभ होता है। इस अधिवेशन में कॉन्ग्रेस कमेटी द्वारा निर्णय लिया गया कि देश अभी सविनय अवज्ञा के लिये पर्याप्त रूप से संगठित और अनुशासित नहीं है। अतः चरखा, तिलक स्वराज फंड तथा कॉन्ग्रेस की सदस्यता को बढ़ाने के लिये निर्णय लिया गया। 30 जून तक तिलक स्वराज कोष के लिये एक करोड़ रुपए चंदा एकत्र करने, कॉन्ग्रेस पार्टी में एक करोड़ नए सदस्यों को भर्ती करने तथा 20 लाख चरखे बाँटने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। कॉन्ग्रेस के इस आह्वान के पश्चात् देखते ही देखते चरखे की लोकप्रियता बढ़ने लगी। चरखे तथा खादी का खूब प्रचार हुआ। खादी तो राष्ट्रीय आंदोलन की प्रतीक बन गई। तिलक स्वराज फंड अपने लक्ष्य से भी आगे निकल गया। यद्यपि कॉन्ग्रेस की सदस्यता का लक्ष्य पूरा तो नहीं हुआ तथापि सदस्य संख्या 50 लाख तक पहुँच गई।


तृतीय चरण (जुलाई 1921-अक्तूबर 1921)


इस चरण में पिछले चरणों के सापेक्षिक रूप से अधिक उग्रता देखी गई। लोगों को सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिये तैयार करने तथा आंदोलन के स्वदेशी आधार को मजबूत करने के लिये विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार के निर्णय को और अधिक प्रभावी ढंग से लागू किया गया। अब आंदोलनकारी घर-घर जाकर विदेशी कपड़ों को इकट्ठा करके उनकी होली जलाते तथा विदेशी कपड़ों की दुकानों पर धरना देते थे। इसके अतिरिक्त इस चरण में ताड़ी की दुकानों के आगे धरना देने का कार्यक्रम देश के कई हिस्सों में काफी लोकप्रिय हुआ था। यद्यपि यह कार्यक्रम आंदोलन की मूल योजना में शामिल नहीं था। आगे चलकर मुस्लिम लीग • के नेता मुहम्मद अली जिन्ना, जिन्होंने किसी भी मुसलमान का सेना में रहना धर्म विरुद्ध घोषित किया था, की सरकार द्वारा गिरफ्तारी, 17 नवंबर को प्रिंस ऑफ वेल्स की यात्रा के बहिष्कार तथा बंबई में श्रमिकों की हड़ताल के कारण आंदोलन और अधिक उग्र हो गया, जिसका एक स्वाभाविक परिणाम गांधीजी की सभा, जो एलफिंस्टन मिल के अहाते में आयोजित हुई थी, से लौटते मजदूरों तथा प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत समारोह में भाग लेने वालों के मध्य संघर्ष के रूप में भी सामने आया, जिससे शहर में दंगा फैलने तथा पुलिस द्वारा गोली चलाए जाने से 52 लोगों की मौत हो गई।


इन सब घटनाओं के परिणामतः अब क्षेत्रीय स्तर पर भी आंदोलनों का प्रसार हुआ। संयुक्त प्रांत के कुछ क्षेत्रों में बटाईदारों ने जमींदारों की अनुचित मांगें मानने से इनकार कर दिया। अवध में किसान सभा की स्थापना हुई, जिसने 'बेदखली रोको आंदोलन' प्रारंभ किया। आगे मदारी पासी के नेतृत्व में एका आंदोलन ने जोर पकड़ लिया। केरल के मालाबार तट पर मोपला विद्रोह हुआ जो मुख्यतः मुस्लिम किसानों का हिंदू भू-स्वामियों के विरुद्ध था। इसने कहीं-कहीं भयंकर सांप्रदायिक रुख अख्तियार कर लिया। असम के चाय बागानों में काम करने वाले मज़दूरों एवं स्टीमर पर काम करने वाले मजदूरों ने भी हड़ताल कर दी। आंध्र प्रदेश में वन कानून का उल्लंघन किया गया। पंजाब में भी गुरुद्वारों पर भ्रष्ट महंतों का नियंत्रण समाप्त करने के लिये सिख अकाली आंदोलन प्रारंभ हो गया।


चतुर्थ चरण (नवंबर 1921-फरवरी 1922)


इस चरण में असहयोग आंदोलन एक अनियंत्रित आंदोलन का रूप लेने लगा था। अली बंधुओं द्वारा मुस्लिमों को सैनिक सेवा से इस्तीफा देने के आह्वान पर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें देश-निकाला दे दिया। इस बात पर क्रुद्ध होकर हसरत मोहानी जैसे मुस्लिम नेता पूर्ण स्वतंत्रता कौ मांग करने लगे थे। परंतु, अब सरकार भी दमन का रास्ता अख्तियार करने को तैयार हो चुकी थी। स्वयंसेवी संगठनों को गैर-कानूनी घोषित किया गया तथा इसके सदस्यों को गिरफ्तार किया जाने लगा। सबसे पहले सी.आर. दास तथा उनकी पत्नी बसंती देवी को गिरफ्तार कर लिया गया। इस गिरफ्तारी का बंगाल में व्यापक पैमाने पर विरोध हुआ तथा हज़ारों लोगों ने गिरफ्तारियाँ दीं।


इसी माहौल में गांधीजी पर राष्ट्रीय स्तर पर कानून की सविनय अवज्ञा के लिये आंदोलन छेड़ने के लिये दबाव बढ़ रहा था। परंतु सरकार के रवैए में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई दे रहा था। जनवरी 1922 में सर्वदलीय सम्मेलन की अपील तथा गांधीजी के पत्र का भी वायसराय पर कोई असर नहीं हुआ। अंततः गांधीजी ने मजबूर होकर फरवरी के द्वितीय सप्ताह में भाषण, प्रेस तथा सभाएँ करने आदि की स्वतंत्रता पर पाबंदी लगाए जाने के मुद्दे को लेकर बारदोली से मालगुजारी की नाअदायगी आंदोलन प्रारंभ करने का निर्णय लिया। परंतु 5 फरवरी, 1922 को चौरी-चौरा (उत्तर प्रदेश) में कॉन्ग्रेस तथा खिलाफत के एक जुलूस ने पुलिसिया दुर्व्यवहार से आपा खोकर पुलिस पर ही हमला कर दिया। इससे आहत होकर गांधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया।


असहयोग आंदोलन के समाप्त हो जाने के बाद खिलाफत का प्रश्न भी बहुत जल्द अप्रासंगिक हो गया। तुर्की की जनता ने मुस्तफा कमाल पाशा को राजनीतिक सत्ता प्रदान की। उसने नवंबर 1922 में तुर्की सुल्तान के सभी राजनीतिक अधिकार छीनकर तुर्की के आधुनिकीकरण एवं एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में रूपांतरित करने का प्रयास किया। अतः 1924 ई. में खलीफा का पद समाप्त कर, संपूर्ण तुर्की में यूरोप की तर्ज पर राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना की गई। इस प्रकार खिलाफत आंदोलन भी समाप्त हो गया।



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